Search This Blog
Sunday, March 25, 2012
चूं चूं
वो चूं चूं की आवाज़
सवेरे जगाती थी मुझे और कितना कोसती थी मैं उसे
दोफहरी को गली में बैठे बिजली के तारों पर
वो चूं चूं की आवाज़
बाल्कनी का दरवाजा गलती से खुला नहीं
की वो चूं चूं बस अन्दर घुसी नहीं
ओह भगवान अरे कोई जल्दी से पंखा बन्द करो
कोई इसे बहार निकालो
जिना हराम कर दिया है
इस चूं चूं ने
इधर – उधर फुदकती सी फिरती थी
वो चूं चूं की अवाज
शाम को जो घर के पिछे पेड़ पर जमा होती थी
मानो अपनी सखियों से दिन भर दूरी के
बाद
उन्हे पुकारती थी
वो चूं चूं की आवाज
दिन भर की हिटोली से थक गई हैं
चलो सखियों कल सवेरें
फिर करनी है अपने मन की
लोगों के जगनें से पहले जगना है हमें
तो इनसे पहले सोना है हमें
वो चूं चूं की आवाज़
जाने कहां गुम हो चली
फिरती थी बेपरवहा जाने कहां चली
कर के हमे उदास जाने कहां गुम हो चली
वो चूं चूं की अवाज
कि काश कहीं से आ जाए वो चूं चूं
फिर से मुझे जगा जाए वो चूं चूं
काश फिर से मेरे कमरे में घुस जाए वो चूं चूं
काश की फिर से मेरी छत पर वो चूं चूं
बरीश के पानी में नाहें वो
काश फिर से लौट आए वो अपनी टोली में
वो चूं चूं की अवाज
फिर से गुंज पड़े मेरी गली में
वो चूं चूं की अवाज
मेरी गोरईया की
वो चूं चूं की अवाज
मेरी गोरईया की
Subscribe to:
Posts (Atom)